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भीतर एक दिया जलने दो

भीतर एक दिया जलने दो
बाहर उल्लू बोल रहे हैं भीतर एक दिया जलने दो।

ये अँधियारा पाख चल रहा
चांद दिनों दिन कम निकलेगा,
जब आयेगी रात उजाली
अंधियारे का दम निकलेगा,
उजियारा है दूर मगर उजियारे की बातें चलने दो।

द्वार लगा दो ताकि यहाँ तक
अंधियारे के दूत न आयें,
पुरवा पछुआ धोखा देकर
इस दीये को बुझा न जायें,
लौ शलभों को छले जा रही कुछ न कहो देखो, छलने दो।

आओ साथी पास हमारे
अंधियारे में दूर न जाओ,
जो न कह सके उजियारे में
वे सारी बातें बतलाओ,
उधर न देखो चांद ढल रहा ढल जायेगा तुम ढलने दो।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

खग उड़ते रहना जीवन भर

खग! उड़ते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ
और नहीं पंखों में भी गति
किंतु लौटना पीछे पथ पर, अरे मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय-झकोरों से तू
बढ़ आशा-हलकोरों से तू
क्षण में यह अरि-दल मिट जाएगा तेरे पंखों से पिसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

यदि तू लौट पड़ेगा थक कर
अंधड़ काल-बवंडर से डर
प्यार तुझे करने वाले ही, देखेंगे तुझको हँस-हँसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

और मिट गया चलते-चलते
मंज़िल-पथ तय करते-करते
तेरी ख़ाक़ चढ़ाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

चट्टानें

चारों ओर फैली हुईं
स्थिर और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।

चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने-आपको
उठता है
और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूंधता है।

आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।

अंत में आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी तरह बेख़बर
चट्टानें पहली बार अपने बीच से
कुछ गुज़रता हुआ
महसूस करती हैं।

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत

 

जीवन नहीं मरा करता है

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुई आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है

माला बिखर गई तो क्या है, ख़ुद ही हल हो गई समस्या
आँसू ग़र नीलाम हुए तो, समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फ़टी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आंगन नहीं मरा करता है

लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिक़न नहीं आई पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझड़ क़ोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है

लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गंध फूल की
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बंद न हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’