Tag Archives: relations

कितनी बड़ी क़ीमत है!

कितनी बड़ी क़ीमत है!
तुमने कहा था-
”तुम्हीं मेरे लिए
भगवान हो”

….सुनकर
बहुत अच्छा
नहीं लगा था

जान गई थी
रहना पड़ेगा
एक और रिश्ते में
भगवान की
उस मूर्ति की तरह
जो खड़ी रहती है
चुपचाप…

लोग
आते हैं उसके पास
दुख में
परेशानी में
और क्रोध में भी!

…करते हैं शिक़ायतें
और देते हैं गालियाँ!
कहती नहीं है मूर्ति
कुछ भी,
प्रत्युत्तर में।
बस मुस्कुराती रहती है।

क्योंकि जानती है
दे देगी
जिस दिन कोई उत्तर
लोग छोड़ देंगे
उसके पास आना भी।

सच!
सुनना
सहना
और मुस्कुराते रहना….

कितनी बड़ी क़ीमत है
भगवान बनने की!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

रफ़ू

नया कपड़ा बुनने से कहीं मु्श्क़िल है
फटे कपड़े को रफ़ू करना!

….आँखें गड़ा-गड़ा कर,
पिरोना होता है एक-एक तार,
छूटे-टूटे ताने-बाने के साथ

रवां करना होता है नया धागा
और बनाना होता है उसे
कपड़े का एक हिस्सा!
इतने के बाद भी
ख़त्म नहीं हो जाता
मसअला!
बेशक़
कारीगरी की क़रामात
दे सकती है चकमा
सारी दुनिया को

…लेकिन हम भरे रहते हैं
इस अहसास से
कि हमने जो ओढ़ा है
वो साबुत नहीं रफ़ू किया गया है!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

विकास

एक कमरा था
जिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग
घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को
पूरा करने के लिए
मेहमान बुला लेते थे हम!

फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए
हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं
कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही
कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं!
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं

फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए
एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए
जिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ

पहले मैं फुसफुसाता था
तो घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब!
जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ
तो बग़ल के कमरे से
ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ
कि मेरी चीख़ की वजह से
वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से
मैं चीख रहा हूँ!

आदमी पहुँच गया हैं चांद तक
पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता

और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ

अब मुझे अपने बाप की बेटी से
अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे से
अपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है दोस्तों
तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा

© Surendra Sharma : सुरेंद्र शर्मा

 

रिश्तों के जंगल

हमें रिश्तों के जंगल में भला क्योंकर भटकने का
जो सुख-दुख में रहे शामिल उसे अपना समझने का

किसी की बात सुनने का, न अपनी बात कहने का
मगर अपनी कसौटी पर खरा होकर उतरने का

हकीक़त जिंदगी की वो भला समझे तो क्या समझे
जिसे मौका नहीं मिलता कभी घर से निकलने का

कोई धीरे से आकर आईना दिखला गया मुझको
अगर चेहरों के जंगल से कभी चाहा गुजरने का

कोई ताकत नहीं जो रोक ले रफ्तार फिर अपनी
अगर हम ठान लें कुछ ज़िंदगी में कर गुजरने का

कभी घुट-घुट के जीते हैं, कभी तिल-तिल के मरते हैं
सलीका ही नहीं आता हमें जीने का मरने का

चलेगी सांस जबतक इस ज़मीं पे दोस्तो, अपनी
रहेगा सिलसिला यूं ही सिमटने और बिखरने का

दरख्तों पे, चटानों पे, बिछी है बर्फ की चादर
यही मौसम तो होता है पहाड़ों के निखरने का

© Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम

 

मूल्य

हाँ!
हार गई हूँ मैं
क्योंकि मैंने
सम्बन्धों को जिया
और तुमने
उनसे छल किया,
केवल छल।

हाँ!
हार गई मैं
क्योंकि
सत्य ही रहा
मेरा आधार
और तुमने
हमेशा झूठ से करना चाहा
जीवन का शृंगार।

क्योंकि
मैंने हमेशा
प्रयास किया
कुछ मूल्यों को
बचाने का
और तुमने
ख़रीद लिया
उन्हें भी मूल्य देकर!

हाँ!
सबने यही जाना
कि जीत गए हो तुम
पर उस हार के
गहन एकाकी क्षणों में भी
मैंने
नहीं चाहा कभी
कि ‘मैं’
‘तुम’ हो जाऊँ

….और यही
मेरी सबसे बड़ी जीत है।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

रिश्ते कई बार बेड़ी बन जाते हैं
प्रश्नचिह्न बन राहों में तन जाते हैं
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

तनहा चलना रास नहीं आता लेकिन
कभी-कभी तनहा भी चलना अच्छा है
जिसको शीतल छाँव जलाती हो पल-पल
कड़ी धूप में उसका जलना अच्छा है
अपना बनकर जब उजियारे छ्लते हों
अंधियारों का हाथ थामना अच्छा है
रोज़-रोज़ शबनम भी अगर दग़ा दे तो
अंगारों का हाथ थामना अच्छा है
क़दम-क़दम पर शर्त लगे जिस रिश्ते में
तो वह रिश्ता भी केवल इक बन्धन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

दुनिया में जिसने भी आँखें खोली हैं
साथ जन्म के उसकी एक कहानी है
उसकी आँखों में जीवन के सपने हैं
आँसू हैं, आँसू के साथ रवानी है
अब ये उसकी क़िस्मत कितने आँसू हैं
और उसकी आँखों में कितने सपने हैं
बेगाने तो आख़िर बेगाने ठहरे
उसके अपनों मे भी कितने अपने हैं
अपनों और बेगानों से भी तो हटकर
जीकर देखा जाए कि कैसा जीवन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

अपना बोझा खुद ही ढोना पड़ता है
सच है रिश्ते अक़्सर साथ नहीं देते
पाँवों को छाले तो हँसकर देते है
पर हँसती-गाती सौग़ात नहीं देते
जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को
रिश्ते उससे उतना रोज़ उलझते हैं
जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की
रिश्ते उससे अपने आप सुलझते हैं
कभी ज़िन्दगी अगर मिली तो कह देंगे
तुझको सुलझाना भी कितनी उलझन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं

कब से कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं।

कोई नहीं मिला मुझको यूँ जब तक भटके मारे-मारे
मोती लगे छूटने जब से इस जीवन की झील किनारे
बदल गये हैं दृश्य अचानक बदल गया है हाल…
काग हंस की खाल ओढ़कर बैठे हैं।

गाता फिरता गली-गली मैं टूटन-उलझन-पीर तुम्हारी
सम्मोहन के आगे झुकते भवन, कँगूरे, महल, अटारी
दुनिया ने जो किये समर्पित सम्मानों के शाल…
सपनों के कंकाल ओढ़कर बैठे हैं।

आगे-पीछे नाच रही है बनकर हर उपलब्धि उजाला
जाने कितने भ्रम पाले है मेरा एक चाहने वाला
मैंने उसे बहुत समझाया, कहा कि भ्रम मत पाल…
फँसे नहीं हैं जाल ओढ़कर बैठे हैं।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

मरणधर्मा सम्बन्ध

सम्बन्धों की ऊष्मा लिए
मन को मन से जोड़े
चले थे हम जिस यात्रा पर
नहीं हो पाई है
वह अभी पूरी

सम्भवत:
लक्ष्य ही नहीं
निर्धारित हो पाया सही
या फिर चलने लगे थे
विपरीत दिशा में
हम ही

हमें तो जाना था
मन से आत्मा की ओर
लेकिन लौटे हम देह पर
और देह का तो एक ही धर्म है,
कि वह मरणधर्मा है।

तो उस पर आधारित सम्बन्ध
रह भी कैसे सकता था जीवित
सदा के लिए?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

साथ सब ना चल सकेंगे

साथ सब ना चल सकेंगे, ये तो हम भी जानते हैं
लोग रस्ते में रुकेंगे, ये तो हम भी जानते हैं
दूसरों के आँसू अपनी, आँख से जो भी बहाए
वो हमारे साथ आए, भीड़ चाहे लौट जाए

दूसरों को जानते हैं, ख़ुद को पहचाना नहीं है
बात है छोटी मगर, सबने इसे माना नहीं है
बौने क़िरदारों को अक़्सर होता है क़द का गुमां
क़द किसी का नापने का भीड़ पैमाना नहीं है
हम तो बस उस आदमी के साथ चलना चाहते हैं
जो अकेले में कभी ना, आइने से मुँह चुराए
वो हमारे साथ आए, भीड़ चाहे लौट जाए

आवरण भाने लगे तो सादगी का अर्थ भूले
अर्थ की चाहत में पल-पल ज़िन्दगी का अर्थ भूले
छोटी ख़ुशियाँ द्वार पर दस्तकें तो लाईं लेकिन
हम बड़ी ख़ुशियों में छोटी हर ख़ुशी का अर्थ भूले
दूसरों की ख़ुशियों में जो ढूंढकर अपनी ख़ुशी को
भोली-सी मुस्कान हर दम अपने होठों पर सजाए
वो हमारे साथ आए, भीड़ चाहे लौट जाए

हर किसी को ये भरम है, साथ है दुनिया का मेला
पर हक़ीक़त में सभी को होना है इक दिन अकेला
ज़िन्दगी ने मुस्कुरा कर बस गले उसको लगाया
जिसने भी ज़िदादिली से ज़िंदगी का खेल खेला
दुनिया में उसको सभी मौसम सुहाने लगते हैं
मौत की खिलती कली पर, भँवरा बन जो गुनगुनाए
वो हमारे साथ आए, भीड़ चाहे लौट जाए

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

अनपढ़ माँ

 

चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ”नौ-बाई-चार” की कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
…लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व निकालना
उसके शब्दों में ‘स्यापा’ है
…क्योंकि उसने मेरे सीने को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है

वह नहीं समझ सकती
कि ‘ए’ को ‘सी’ बनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता है
…लेकिन अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए
कौन सा फॉर्मूला अपनाना होता है।

मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
…उसने तो केवल ख़ुश्बू सूंघकर बता दिया है
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।

घर की कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों
घर की आमदनी
और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
…लेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिद्धान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।

वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
….स्वर साधना के लिए
वह संगीत का कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
…लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे
कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुग़ल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में किस पार्टी के निशान पर
मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीपावली पर कौन-सी साड़ी जानी है।

बेशक़ माँ को नहीं आता
सीधा स्वास्तिक बनाना
लेकिन स्वास्तिक को ख़ूब आता है
माँ के हाथ से बनकर
शुभ हो जाना

मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
बात की दिशा मोड़ सकती है
झगड़े की सम्भावनाओं को भाँप कर
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ सकती है

दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुश्बू से
सुबह-शाम सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
रात भर सो नहीं पाती है।

सच!
कोई भी माँ
अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि ढेर सारी डिग्रियाँ बटोरने के बावजूद
बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी
कैसे चलानी होती है।

© Chirag Jain : चिराग़ जैन