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रिश्तों के जंगल

हमें रिश्तों के जंगल में भला क्योंकर भटकने का
जो सुख-दुख में रहे शामिल उसे अपना समझने का

किसी की बात सुनने का, न अपनी बात कहने का
मगर अपनी कसौटी पर खरा होकर उतरने का

हकीक़त जिंदगी की वो भला समझे तो क्या समझे
जिसे मौका नहीं मिलता कभी घर से निकलने का

कोई धीरे से आकर आईना दिखला गया मुझको
अगर चेहरों के जंगल से कभी चाहा गुजरने का

कोई ताकत नहीं जो रोक ले रफ्तार फिर अपनी
अगर हम ठान लें कुछ ज़िंदगी में कर गुजरने का

कभी घुट-घुट के जीते हैं, कभी तिल-तिल के मरते हैं
सलीका ही नहीं आता हमें जीने का मरने का

चलेगी सांस जबतक इस ज़मीं पे दोस्तो, अपनी
रहेगा सिलसिला यूं ही सिमटने और बिखरने का

दरख्तों पे, चटानों पे, बिछी है बर्फ की चादर
यही मौसम तो होता है पहाड़ों के निखरने का

© Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम

 

मैंने देखा है

धड़कते, साँस लेते, रुकते, चलते, मैंने देखा है
कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है

तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं
तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते मैंने देखा है

न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है
ख़ुद अपने आप को नींदों में चलते मैंने देखा है

मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें
तेरे सीने में अपना दिल मचलते मैंने देखा है

बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी
बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है

मुझे मालूम है सबकी दुआएँ साथ चलती हैं
सफ़र की मुश्क़िलों को हाथ मलते, मैंने देखा है

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

 

किरदार खो बैठे

दिलों को जोड़ने वाला सुनहरा तार खो बैठे
कहानी कहते-कहते हम कई किरदार खो बैठे

हमें महसूस जो होता है खुल के कह नहीं पाते
कलम तो है वही लेकिन कलम की धार खो बैठे

हरेक सौदा मुनाफे में पटाना चाहता है वो
मगर डरता भी है, ऐसा न हो, बाजार खो बैठे

कभी ऐसी हवा आई कि सब जंगल दहक उट्ठे
कभी बारिश हुई ऐसी कि हम अंगार खो बैठे

नशा शोहरत का पर्वत से गिरा देता है खाई में
खुद अपने फ़न के जंगल में कई फ़नकार खो बैठे

खुदा होता तो मिल जाता मगर उसके तवक्को में
नजर के सामने हासिल था जो संसार, खो बैठे

मेरी यादों के दफ्तर में कई ऐसे मुसाफिर हैं
चले हमराह लेकिन राह में रफ्तार खो बैठे

हमारे सामने अब धूप है, बारिश है, आंधी है
कि जिसकी छांव में बैठे थे वो दीवार खो बैठे

अगर सुर से मिलाओ सुर तो फिर संगीत बन जाए
वो पायल क्या जरा बजते ही जो झंकार खो बैठे.

© Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम

 

अम्मा

चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समन्दर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं, तो-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

 

बाबू जी

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबूजी

तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे क़द्दावर थे बाबूजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की सारी सज-धज, सब ज़ेवर थे बाबूजी

भीतर से ख़ालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

 

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक
मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक

टूटे हुए ख़्वाबों की इक लम्बी कहानी है
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक

दिल आम नहीं करता, अहसास की ख़ुशबू को
बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक

लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक

इक ऐसी अदालत है, जो रूह परखती है
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक

हर वक़्त फ़िजाओं में, महसूस करोगे तुम
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूंगा ज़मानों तक

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव