आज पिताजी लड़कर निकले

आज पिताजी लड़कर निकले दिन भर घर में मौन समाए दीवारों पर क्या बीती है छत को जाकर कौन बताए। माँ से कुछ नाराज़ी होगी उनको सूझी चिल्लाने की मुझे देखकर कोशिश भी की उनने थोड़ा मुस्काने की होंठ हिले, त्यौरी भी पिघली आँखों में आंसू भर आए झट से चले गए फिर बाहर गुस्से में हर कष्ट छुपाए। कहासुनी सुन रहे सभी पर कहाँ सुनी उनने हम सबकी सहम गए सब फूल अचानक मौसम में ज्वाला सी भभकी माँ पहले रूठी फिर रोई गुस्से में रोटी भी पोई टिफिन छोड़ कर निकल गए पर घर से बिन बोले, बिन खाए। धीरे धीरे ठंडा होगा संबंधों का तापमान भी रोज़ाना की भागदौड़ में विस्मृत होगा यह विधान भी ऐसा ना हो इस घटना की बचपन को आदत पड़ जाए ऐसा ना हो ऐसी घटना बचपन के मन पर छप जाए। © Chirag Jain : चिराग़ जैन