आख़िरी डर

सबकी तरह तुमने भी किया था मेरा उपहास! सबकी ही तरह हँसकर तुमने भी कहा था- ”डरती ही रहना जीवन भर! डरपोक कहीं की!” लेकिन अब कोई भी नहीं कर पाता है मेरा उपहास; नहीं डरा पाती है मुझे! कोई भी बात किसी भी आशंका से नहीं घबराता है मेरा मन; किसी के द्वारा की गई अवहेलना, किसी का सम्बन्धों से निर्द्वन्द्व होकर खेलना, किसी का साथ किसी भी मोड़ पर छूटना, किसी भी स्वप्न का किसी भी पल टूटना, या किसी भी शख़्स का किसी भी बात पर रूठना अब नहीं डराता है मुझे नहीं घबराता है मन अब किसी भी डर से ….जानते हो क्यों? क्योंकि तुम मेरा आख़िरी डर थे। © Sandhya Garg : संध्या गर्ग