भावों का आंगन

आज तुम्हारे दो नैनों का हमको चुम्बन छू निकला मन की देहरी को जैसे भावों का आंगन छू निकला आज नहीं आह्लाद है कोई, ना ही कोई उत्सव बिना किसी त्यौहार भला क्यों मन में गूँजे कलरव तन दमका कुंदन-सा स्वर्णिम सांसे चंदन छू निकला मिली भाग्य से हमको-तुमको इक जैसी रेखाएं जन्म-जन्म में तुम्हे मिलें हम, तुमको ही हम पाएं मिले हमें तुम, ज्यों प्राणों को पूजन-तर्पण छू निकला अनुष्ठान-सी छुअन तुम्हारी पत्थर भी हो पावन देह छुई, साँसों को दे बैठे इक मधुर निवेदन नभ की पीर लिए वसुधा को कोई सावन छू निकला © Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला