छोटा-सा लड़का

कहीं एक छोटा-सा लड़का
छोटे कस्बे में रहता था
इक दिन वो भी बड़ा बनेगा
अक्सर सबसे ये कहता था
उन छोटी-छोटी ऑंखों में
सपने काफ़ी बड़े-बड़े थे
उसके मन के भीतर जाने
कितने अरमां भरे पड़े थे

अपने इन सपनों को जब वो
अपनी ऑंखों में भरता था
पंख तौल कर अपने जब वो
उड़ने की सोचा करता था
तब उसको लगता कस्बे का
बस मुट्ठी भर आसमान है
इतने से उसका क्या होगा
उसकी तो लम्बी उड़ान है

यही सोचता रहता दिन भर
आख़िर वो दिन कब आएगा
जब वो अपने पंख पसारे
खुले गगन में उड़ जाएगा
इक दिन क़िस्मत ले ही आई
उसे इक ऐसे महानगर में
जहाँ उजाला ही रहता था
सात दिवस के आठ पहर में

असली सूरज के ढलते ही
नक़ली सूरज उग आते थे
इसी वजह से यहाँ परिन्दे
दूर-दूर तक उड़ पाते थे
गाँव-गली में शाम ढले ही
जब दिन धुंधलाने लगता है
तब लोगों को रात बिताने
घर वापस आना पड़ता है

लेकिन इस मायानगरी का
केवल दिन से ही था नाता
इस नगरी में छोटा लड़का
लम्बी दूरी तक उड़ जाता
अब वो इक छोटा-सा लड़का
पंख पसारे ऊँचा उड़ता
आगे ही बढ़ता रहता था
लेकिन पीछे कभी न मुड़ता

उड़ते-उड़ते कभी-कभी जब
याद उसे कस्बा आता था
तब जाने क्यों छोटा लड़का
कुछ उदास-सा हो जाता था
तब वो रुककर सोचा करता
क्या ये रास उसे आएगा
क्या वो इन कोमल पंखों से
सारा जीवन उड़ पाएगा

कभी अगर इस महानगर की
हवा श्वास में भर जाती थी
तो पल भर में ही वो उसका
जीवन दूभर कर जाती थी
इस अनजाने महानगर में
कोई किसी का मीत नहीं है
यहाँ सिर्फ़ बेगानापन है
अपनेपन की रीत नहीं है

घबराता जब छोटा लड़का
तभी एक झोंका आता था
और उसी झोंके के संग में
लड़का फिर से उड़ जाता था
हँसते-रोते ही वह लड़का
महानगर में जी लेता था
सुख के दुख के सभी घूँट; वो
धीरे-धीरे पी लेता था

आख़िर सीख लिया उसने भी
थोड़ी चालाकी अपनाना
ज्यादा ऊँचाई पाने को
लोगों के ऊपर चढ़ जाना
अब उसको सारी चालाकी
साधारण सी ही लगती थी
महानगर की हवा उसे अब
प्राणवायु जैसी लगती थी
उसने सीख लिया था अब
संबंधों की सीढ़ी चढ़ लेना
ख़ुद का क़द ऊँचा करने को
औरों को छोटा कर देना
अब वो दिन भर उड़ता रहता
महानगर के आसमान में
कोई बाधा नहीं थी उसको
ऊँची से ऊँची उड़ान में

लेकिन अब छोटे लड़के को
महानगर भी छोटा लगता
अब वो अपने पंख तौलने
और कहीं की सोचा करता
ऐसा ना हो भटक जाए वो
और कहीं से और कहीं पर
ऐसा ना हो आन गिरे वो
नीले नभ से हरी ज़मीं पर

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग