चुप्पियाँ बोलीं

चुप्पियाँ बोलीं
मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
ढ़ेर-सा है जल, तो तड़पन भी बहुत है

शाप है या कोई वरदान है
यह समझ पाना कहाँ आसान है
एक पल ढेरों ख़ुशी ले आएगा
एक पल में ज़िन्दगी वीरान है
लड़कियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
पर हैं उड़ने को, तो बंधन भी बहुत हैं…

भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी-पहचानी वो आहट अब कहाँ
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं ख़नकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…

दिन तो पहले भी थे कुछ प्रतिकूल से
शूल पहले भी थे लिपटे फूल से
किसलिये फिर दूरियाँ बढ़ने लगीं
क्यूँ नहीं आतीं इधर अब भूल से
तितलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं महकते पल, तो अड़चन भी बहुत हैं…

रास्ता रोका घने विश्वास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिये फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं अगर सावन तो भटकन भी बहुत हैं…

भावना के अर्थ तक बदले गए
वेदना के अर्थ तक बदले गए
कितना कुछ बदला गया इस शोर में
प्रार्थना के अर्थ तक बदले गए
चुप्पियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
कहने का है मन, तो उलझन भी बहुत हैं…

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी