गीतकार मन

दुनिया भर के आंसू लेकर आखिर कहां कहां भटकोगे,
गीतकार मन, कहीं बैठकर गीत तुम्हें गाना ही होगा।

ज्ञात मुझे तुम चंदनवन से नागदंश लेकर लौटे हो
ज्ञात मुझे यह सागरतट से तुम प्यासे वापस आये,
कितने ही अपराह्न तुम्हारे ढलते रहे प्रतीक्षा में
कितने पुष्पमाल स्वागत के यूँ ही गुंधकर कुम्हलाए,
लेकिन तुमने हार नहीं मानी, कांटों में मुसकाये तुम
वह सारी अनुभूति भुलाकर मीत तुम्हें गाना ही होगा।

करती हैं व्यापार अमृत का गली गली में विष कन्यायें
भौंरे बैठे हैं फूलों पर गंधों के विक्रेता बनकर,
दूर दूर तक दृष्टि घुमाकर देखो एक बार तो देखो
मुकुट पहन कर बैठे सारे हारे हुये विजेता बनकर
घोर विसंगतियों के युग में तुम यों मौन नहीं रह सकते
रूठे युग फिर भी युग के विपरीत तुम्हें गाना ही होगा।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल