कभी दस्तूर शीशे के

साइल राहे-उल्फ़त में मिले भरपूर शीशे के
कभी दीवार शीशे की, कभी दस्तूर शीशे के

ये दुनिया ख़ुद में है फ़ानी यहाँ सब टूट जाता है
महल वालो न रहना तुम, नशे में चूर, शीशे के

वो कोई दौर था, जब थी फटी चादर कबीरों की
यहाँ शीशे के ग़ालिब हैं, यहाँ हैं सूर शीशे के

नहीं मालूम कैसे, कब, कहाँ से आ गए पत्थर
चलो अच्छा हुआ हम-तुम खड़े थे दूर शीशे के

नहीं मंज़ूर हमको दोस्त पत्थर के ‘चरन’ सुन ले
मगर दुश्मन भी हमको तो नहीं मंज़ूर शीशे के

 

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण