कैसे मान लूँ?

उसे मरा कैसे मान लूँ? रोज़ ही तो मिलता है! उस दिन पड़ोसन कह रही थी ‘मुँह बोला’ किसे कहते हैं? भाई है मेरा, …भाई एक भी भैया दूज नहीं चूका.. मकान मालिक ने टांग रखी है उसकी तस्वीर तस्वीर पर चन्दन की माला कहता है: उसका कमरा है किसी और को किराए पर नहीं दूंगा! और तो और नुक्कड़ पर बैठा भिखमंगा बताता है रो-रो कर पैसे दो पैसे देने वाले तो और भी बहुत हैं पर वह? कभी नहीं हुआ कि इधर से गुज़रा हो और न पूछा हो: ”कैसे हो मांगेराम?” जिस डॉक्टर के नर्सिंग होम में भरती था कहता है: मरीज़ बहुत आए पर ऐसा नहीं मन होता था सब काम छोड़ कर इसके पास ही बैठा रहूँ इसकी सुनता रहूँ अपनी सुनाता रहूँ कल एक किताब पढ़ने लगा (कभी ले गया होगा मुझसे उधार) हाशिए पर लिखी उसकी इबारत जैसे कह रहा हो: ‘यूँ पढ़ी जाती है किताब!’ गली के बच्चे अब मेरी अनुहार करते हैं अंकल, अंकल टॉफी, टॉफी उसे मरा कैसे मान लूँ! © Jagdish Savita : जगदीश सविता