कृष्ण

यदि तुम चाहते तो रुक सकता था महासमर! तुम्हें तो मालूम था योगिराज! विषाद ही तो है योग के सोपान का प्रथम पायदान आत्मग्लानि में डूबा द्रवित मना अर्जुन क्या ज़रूरत थी उस सत्रह अध्याय लम्बे वाग्जाल की? विराट रूप दिखा कर उसे डराने-धमकाने की? मामेकम् शरणम् व्रज आदि गर्वोक्तियों से आतंकित करने की? अन्तत: कहलवा ही लिया ‘यत्र योगीश्वर: कृष्ण:….’ क्यों नहीं प्रयोग किए ये हथकण्डे दुर्योधन के ऊपर? दुराग्रही सही वह पर तुम तो वाक् पटु थे तुम्हारे कूटनीतिक सुझाव पर क्या ढाँप नहीं ली थी उसने पत्तों से अपनी लज्जा? तुम्हारी मान कर गले लगा सकता था हारे धर्मराज को बच सकते थे अठारह अक्षौहिणी जीवन यदि तुम चाहते तो! © Jagdish Savita : जगदीश सविता