क्या दिन थे

क्या दिन थे वो भी ‘कब्ज़’ क्या होता है मुझे पता ही नहीं था! रोज़ सुबह तीन टांग वाले स्टोव पर वह मेरा चाय बनाना गली के काणे कुत्तो का हिज़ मास्टर्स वाइस के पोज़ में आ बैठना नहाना किसका? हो गया कभी महीने में एक-दो बार काम बहुत रहता था ना! गाँव की पैंठ में जा कर माक्र्स और लेनिन का साहित्य बेचना स्थानीय कॉलिज में ‘पार्टी’ प्रत्याशी के लिए चुनाव सामग्री जुटाना, रिक्शा चालकों के जुलूस की अगवानी कुँवर जगदीश से ‘रोज़न बर्ग को लाल सलाम’ शीर्षक पेंटिंग लेकर ‘बे-रोज़गार’ दफ्तर पहुँचाना बेरोज़गार दफ्तर यानि आनन्द भाई की बैठक जो हैड-क्वार्टर रही ‘सर्वहारा समाज’ की ‘इप्टा’ की ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की वहाँ बिछी दरी पर बैठकर लिटकर अख़बार की सुर्ख़ियों पर बहस अगले नुक्कड़ नाटक की योजना सन्तो भाभी की शानदार गालियाँ प्रोफेसर राय के साइकिल से यूरोप यात्रा के संस्मरण सामने आर्यसमाज मंदिर से उठते हवन के धुँए को बीड़ियों के छल्ले उठा-उठा कर परे धकेलना माँ-बाप जब नौकरी की या शादी की बात चलाते तो ‘हूँ’ कहकर बाहर खिसक जाना चबूतरे पर बैठकर आते-जातों को बताना कि नेहरू सरकार द्वारा जान-बूझ कर उड़ाई गई है सुभाष बोस की हवाई हादसे में मौत की अफवाह वे ज़िन्दा हैं और जल्दी ही प्रकट भी होंगे आपको यह भी जानना चाहिए कि सरदार भगतसिंह वामपंथी थे कभी-कभी मित्राश्रम यानि चकले की तरफ निकल जाना अच्छा लगता था जब नज्मा ‘भाई जान’ कहकर बुलाती थी! दल्लों से ग्राहकों से रण्डियों के उद्धार की बातचीत जैसा कि चीन में हुआ है बताते हैं पं. सुंदरलाल खतौली वाले कई एकड़ में फैली नवाब साहब की हवेली में खुलेगा एक दिन ज़रूर खुलेगा कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर लहराएगा लाल परचम हाँ तो पहलवान देना एक बीड़ी माचिस है मेरे पास… …क्या दिन थे! © Jagdish Savita : जगदीश सविता