मन कितना अकेला

मैं नदी के तीर बैठा सोचता हूँ वक़्त के तूफ़ान में सब बह गया है आज मन कितना अकेला रह गया है आज कोई गीत न उतरा ज़हन में सो रही हैं कामनाएँ सुप्त मन में रात सहमी चाँद कुछ गम्भीर-सा है और आँखों में भी खारा नीर-सा है पर न हारो हौसला धीरज धरो टूट कर पलकों से आँसू कह गया है आज मन कितना अकेला रह गया है गूँजते थे स्वर बहारें नाचती थीं नित्य चाहत से भरे ख़त बांचती थीं प्रेम से हर कोण मन का था अलंकृत था मिलन के राग से हर साज झंकृत वो गया है छोड़ कर जबसे मुझे यूँ जिस्म इक माटी का ढेला रह गया है आज मन कितना अकेला रह गया है जब लगी थी आग ख़्वाबों के चमन में कब छलकने था दिया पानी नयन में पर अभी तक बात ना ये भूल पाये फूल के बदले जो हमने शूल पाये प्यार की बुनियाद पर ही था टिका मन और ख़ुशियों का महल अब ढह गया है आज मन कितना अकेला रह गया है अब कोई ऎसे न रिश्ते हैं न नाते मंज़िलों तक जो सफ़र में साथ जाते दूसरों के दर्द में आँसू बहायें साथ बाँटें जो हमारी वेदनाएँ वो ही जीवन की ये कश्ती खे सका; जो पीर पर्वत-सी अकेले सह गया है आज मन कितना अकेला रह गया है © Nikunj Sharma : निकुंज शर्मा