मन का अंधेरा

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ बहुत बार आई गई यह दीवाली मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है बहुत बार लौ जल बुझी पर अभी तक कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ सृजन शांति के वास्ते है ज़रूरी कि हर द्वार पर रौशनी गीत गाए तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा कि जब प्यार तलवार से जीत जाए घृणा बढ़ रही है, अमा चढ़ रही है मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ बड़े वेगमय पंख हैं रौशनी के न वह बंद रहती किसी के भवन में किया क़ैद जिसने उसे शक्तिबल से स्वयं उड़ गया वह धुँआ बन पवन में न मेरा-तुम्हारा, सभी का प्रहर यह इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ अगर चाहते तुम कि सारा उजाला रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा नहीं जानते कि फूस के गेह में पर बुलाता सुबह किस तरह से अँगारा न फिर कोई अग्नि रचे रास इससे सभी रो रहे आँसुओं को हँसाओ। दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ © Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’