न आरोह न अवरोह

न आरोह है, न ही अवरोह है
दाल-रोटी की निसदिन उहा-पोह है
न लय है, न स्वर है
न संगीत है
बग़ावत है, नारा है
एक द्रोह है।
बुझते दीपक की लौ की तड़प है यहाँ
बंद मुट्ठी, तने सिर का है कारवाँ
ये हाशियों पर धकेले गए शब्द हैं
यह किसानों की हत्याओं पर शोक है
न आरोह है, न ही अवरोह है
दाल-रोटी की निसदिन उहा-पोह है
ये हारी-थकी शाम का पाँव है
बिना मछली लिए लौटती नाव है
ये संसद में बिकता हुआ गाँव है
गीत खोया जहाँ ये वही खोह है
न आरोह है, न ही अवरोह है
दाल-रोटी की निसदिन उहा-पोह है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र