थक चुकी है वह

इतनी थक चुकी है वह प्यार उसके बस का नहीं रहा पैंतीस बरस के उसके शरीर की तरह जो पैंतीस बरस-सा नहीं रहा घर के अंदर रोज़ सुबह से वह लड़ती-झगड़ती है बाज़ार से और बाज़ार में रोज़ शाम घर ढूंढते-ढूंढते खो जाती है। रोटी बेलते वक़्त अक्सर वह बटन टाँक रही होती है और कपड़े फींचते वक़्त सुखा रही होती है धूप में अधपके बाल। फिरकी-सी फिरती रहती है पगलाई वह बच्चों को डाँटती-फटकारती और बिना बच्चों के सूने घर में बेहद घबरा जाती है। कितना थक चुकी है वह । मैं उसे एक दिन घुमाने ले जाना चाहता हूँ बाहर दूर… घर से बाज़ार से खाने से कपड़ों से उसकी असमय उम्र से। © Bhagwat Rawat : भगवत रावत