बनफूल

मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है उड़ने को पंख नहीं मेरे, सारा पथ दुर्गम अनजाना काली रूखी गदबदा बदन, कांसे की पायल झमकाती सिर पर फूलों की डलिया ले, हर रोज़ सुबह मालिन आती ले गई हज़ारों हार निठुर, पर मुझको अब तक नहीं छुआ मेरी दो पंखुरियों से ही, क्या डलिया भारी हो जाती मैं मन को समझाता कहकर, कल को ज़रूर ले जाएगी कोई पूरबला पाप उगा, शायद यूँ ही हो कुम्हलाना उस रोज़ इधर दुल्हा-दुल्हन को लिए पालकी आई थी अनगिनती कलियों-फूलों से, ज्यों अच्छी तरह सजाई थी मैं रहा सोचता गुमसुम ही, ये भी हैं फूल और मैं भी सच कहता हूँ उस रात, सिसकियों में ही भोर जगाई थी तन कहता मैं दुनिया में हूँ, मन को होता विश्वास नहीं इसमें मेरा अपराध नहीं, यदि मैं भी चाहूँ मुसकाना पूजा में चढ़ना होता तो, उगता माली की क्यारी में सुख सेज भाग्य में होती तो, खिलता तेरी फुलवारी में ऐसे कुछ पुण्य नहीं मेरे, जो हाथ बढ़ा दे ख़ुद कोई ऐसे भी हैं जिनको जीना ही पड़ता है लाचारी में कुछ घड़ियाँ और बितानी हैं, इस कठिन उपेक्षा में मुझको मैं खिला पता किसको होगा, झर जाऊंगा बे-पहचाना © Bharat Bhushan : भारत भूषण