मौन का अभ्यास करता मन

कलरवों की हाट में हर क्षण, मौन का अभ्यास करता मन दृश्य हैं कितने मनोहर, सामने अमृत-कलश है किन्तु लौकिक साधनों से क्या व्रती होता विवश है? व्यर्थ है यह अमिय-आकर्षण, मृत्यु का उपहास करता मन साधना में सत्य की, है संशयों से मुक्त जीवन दैत्य हों कितने बली पर अब नहीं डरता मेरा मन तड़का, मारीच, हो रावण, राम पर विश्वास करता मन जीत भी है, हार भी है, मित्र मन कितना अनोखा! अमिय एवं गरल का यह संतुलन कितना अनोखा! भाव-भू का आर्द्र है कण-कण, हर्ष का आभास करता मन आज क्यों है मूक, जो था आदि से शिक्षक हमारा? हो गया क्यों मलिन, जिसने विश्व को इतना सँवारा? जब कभी अब देखता दर्पण, शर्म का अहसास करता मन © Ashutosh Dwivedi : आशुतोष द्विवेदी