हम न मांगेंगे कभी भी छाँव अब वंशीवटों से

हों हमारे प्राण के प्यासे भले ही सूर्य सारे हम न मांगेंगे कभी भी छाँव अब वंशीवटों से भिक्षुकों का क्या प्रयोजन, स्वर्ण के सम्मोहनों से भूख का नाता रहा कब राजसी आयोजनों से हम अभागों को रुचे हैं श्वास के अंतिम निवेदन देह का नाता भला क्या स्वर्ग के आमन्त्रणों से ढूंढना हमको नहीं आनन्द की अमरावती में गन्ध आएगी हमारी सिर्फ़ शाश्वत मरघटों से बोझ धरती का बढ़ाकर जी रहे, ये ही बहुत है हम नहीं जग के, स्वयं के ही रहे, ये ही बहुत है हम नहीं शंकर, गरल पीकर अमर हो जाएंगे जो हम गरल होकर अमरता पी रहे, ये ही बहुत है आग गोदी में सजाकर, क्यों छुएँ आकाशगंगा प्यास लेकर लौट आए हम हमेशा पनघटों से हम भला देवत्व पाकर, क्या करेंगे ये बताओ देव मेरे! आदमी को, आदमी जैसा बनाओ दो घड़ी ठहरो धरा पर भूल कर देवत्व सारा और जीवन को ज़रा हो के मनुज जीकर दिखाओ हो चलेगा प्रेम तुमको मृत्यु के एकांत से ही ऊब जाओगे किसी दिन श्वास के इन जमघटों से © Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला