दो नावों की सवारी

कविता के साथ चली चाकरी चालीस साल आखर मिटाए कब मिटे हैं ललाट के रहा मैं दो नावों पे सवार- लीला राम की थी राम ही लगाएंगे किनारे किसी घाट के शारदा को नमन कबीरा को प्रणाम किया छुए न चरण किसी चारण या भाट के तोड़ गई ‘ग़ालिब’ को तीन महीनों की क़ैद ताड़-सा तना हूँ दो-दो उम्र क़ैद काट के © Alhad Bikaneri : अल्हड़ ‘बीकानेरी’