वक़्त भागा जा रहा था

गर्दिशे-हालात की जंजीर से जकड़े हुए थे वक़्त भागा जा रहा था और हम ठहरे हुए थे नींद आती थी मगर उसमें कोई लज्ज़त नहीं थी ख्वाब जाने कौन से ताबूत में सोये हुए थे इक शगूफा छोड़कर कोई वहां से चल दिया था और हम आपस में कितनी देर तक उलझे हुए थे ज़ेहनो-दिल में एक बेचैनी सी थी छायी हुयी रात का अंतिम पहर था और हम जागे हुए थे और फिर साबित हुआ हमपे कि धरती गोल है जब अचानक मिल गए वे लोग जो बिछड़े हुए थे उम्र के इस मोड़ पर कोई सुधर सकता है क्या लोग कहते हैं कि हम बचपन के ही बिगड़े हुए थे © Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम