आ मुसाफिर!

आ मुसाफिर! बैठ जा, कश्ती अभी खाली पड़ी है। तू अकेला मै अकेला, और आशातीत हूँ मैँ, प्रेम मत करना शपथ है, प्रेम से भयभीत हूँ मैँ; विष पिये मीरा कि मूरत कृष्ण की काली पड़ी है। मत घृणा करना , घृणा से, तू डुबो देगा भँवर मेँ, सोच तू ही साथ तेरे क्या बचेगा फिर सफर मेँ?। बात अपने बीच कितनी सोचने वाली पड़ी है। जा उतर जा आ गया तट , जा कि अपनी राह ले ले। फिर न मुड़कर देखना अब जो बची हो चाह, ले ले! फिर वहीँ ताला पड़ा है फिर वहीँ ताली पड़ी है। © Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल