मनुष्य

तुम आई नहीं मैं मौन से डरता रहा अपने स्वयं को अपने से ही छलता रहा वह कौन-सा मैं था जो डर रहा था वह कौन-सा मैं था जो छल रहा था और अब वह कौन-सा मैं है जो मुख़ातिब है आपसे वह कौन-सा है मैं जिसने क्षण भर पहले कोसा था आपको और अब प्रणत है आपके चरणों में वह कौन-सा मैं था जिसने कल तुम्हारी धज्जियाँ उड़ाई थीं चिंदिया-चिंदिया बखेर दी थी तुम्हारी कविताएँ, और वह कौन है जो आज घोषित कर रहा है तुम्हें प्रणेता महाकाव्य का युगपुरुष बीसवीं सदी का। वह कौन था जिसने कहा था तुम नरक का द्वार हो- कलुष हो पुरुष के भाल का और वह कौन था जो जन्मा था तुम्हारे गर्भ से नरक के द्वार से पदों में सर्वोच्च पद देने मातृत्व कर तुम्हें। माँ स्वयं सृष्टा है फिर भी भ्रष्टा है वह नहीं आ सकता धरती पर- तभी भेजा है माँ को उसने अपना प्रतिनिधि बनाकर तब एक बात पूछूँ- बताओगी- जब सृष्टा ही भ्रष्ट है तो कैसे होंगे उसके जात युगपुरुष युग के सूर्य। वे सदा अपने मैं को। बखेरते रहेंगे और छलते रहेंगे अपने मैं को अपने से ही। यही नियति थी- यही नियति है- यही नियति रहेगी- मनुष्य की। पाल से भले ही दम्भ वह, जीतने का पृथ्वी को आकाश को दिग्-दिगन्त को पर, वह मनुष्य है मनुष्य ही रहेगा। यही उसकी जीत है यही उसकी हार है और इसी हार की जीत का नाम है- मनुष्य दुख यही है कि वह जानता है फिर भी नहीं जानता वह मानता है फिर भी नहीं मानता। बोलो मेरी तुम- मेरे मौन- क्या वह इस द्वन्द्व से ऊपर उठ सकेगा, ‘मैं’ के टुकड़ों को पूर्ण ‘मैं’ कर सकेगा वह पूर्ण, जिसमें से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण बच रहता है। जैसे मैं में से मैं को निकाल दे तो मैं ही बच रहता है बोलो। कुछ तो जवाब दो। जवाब दो। जवाब दो। उत्तर कहीं नहीं है, मात्र प्रतिधवनि है, प्रश्न की – मानो प्रश्न ही प्रश्न कर रहा है मुझसे जवाब दो! जवाब दो!! जवाब दो!!! इसीलिए तो अपने मौन से डर रहा हूँ मैं अपने मैं को- अपने से ही छल रहा हूँ मैं क्योंकि मैं मनुष्य हूँ Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर