कहना न कभी ज़िन्दगी आराम का घर है

कहना न कभी ज़िन्दगी आराम का घर है इक भीड़ भरी रेल में वेटिंग का सफ़र है वो इतने करम करने लगे मुझपे अचानक सजदे में न मर जाऊँ इसी बात का डर है जिसमें है महक़ फूलों की, काँटों की चुभन भी ऐसा तो यहाँ सिर्फ़ मुहब्बत का सफ़र है छुप-छुप के मुझे देखना फिर नज़रें चुराना कहते वो रहें कुछ नहीं, कुछ बात मगर है इस पार तेरे जिस्म को चलना है क़दम चार आख़िर में सफ़र रूह का उस पार उधर है हर बार मुझे छूके बुरा वक़्त टला है अम्मा की दुआओं में मेरी ऐसा असर है झुक जाता है जिस दर पे पहुँचते ही मेरा सर राजा का नहीं वो किसी दरवेश का दर है © Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल