मैं और तथागत

मेरे सामने सजा है कला-प्रदर्शनी से ख़रीद कर लाया बुद्ध भगवान का बस्ट चेहरे पर कैसी अपार शान्ति क्या रहस्य है इसका? क्या मिल सकती है आज भी? मूर्ति के जैसे कान खड़े हो गए हों! खुलने लगे हों निमीलित नयन! उभरने लगी हो होठों पर व्यंग्य भरी मुस्कान! ऐसा अक्सर तब होता है जब महीना दो महीना पीहर में बिता कर लौटी हो धर्मपत्नी या बेटा ज़िद्द करे- ‘कहीं से भी हो हमें लाकर दीजिए मोबाइल चाहिए, आज ही। या फिर मेरे ख़ून या पेशाब की जाँच रिपोर्ट चिन्ता की रेखाएँ चेहरे पर साफ़ उभर आती हैं अथवा जिस दिन भरता हूँ इन्कम टैक्स की रिटर्न लगने लगता है रोके ही न रुक रही हो डरता हूँ पेरिस प्लास्टर की ये प्रतिमा कहीं चूर-चूर ही न हो जाए! © Jagdish Savita : जगदीश सविता