द्रौपदी

जब मुझे बना दिया गया पाँच-पाँच की सामूहिक पत्नी मैंने प्रतिरोध नहीं किया क्योंकि जब उसने ही नहीं किया जो स्वयंवर में मुझे जीत कर लाया था मैं जानती थी धनुर्धर है वह पर कहीं न कहीं उसमें छिपी थी एक वृहन्नला शेष चारों के भीतर भी बैठा था कोई शिखण्डी आगे चल कर देखा मैंने भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र किया जा रहा था और वे सब बैठे रहे सिर झुकाए वह दुर्योधन द्वारा मुझे अपनी जंघा पर आसीन करने का दुस्साहस मेरे ससुरालय का एक-एक सदस्य वहाँ उपस्थित था काम आया कौन? मेरा भाई! फिर वह बारह वर्ष का अज्ञात वास कोई बना पहलवान कोई रसोइया और वह जो मुझे वर कर लाया था वह वही बना जो वह था- वृहन्नला! राजदरबार में ठुमका लगाने वाली वृहन्नला बदला लिया गया विनष्ट हो गए सारे कौरव दुर्योधन की जंघा को चीर कर निकाला गया लहू और पिया गया युद्ध भूमि में ही इसे क्या पुरुषत्व कहेंगे? महासमर समाप्त हुआ पाण्डव विजयी हुए पर क्या युद्ध कौशल से? …नहीं यह सब चमत्कार था मेरे भाई की रणनीति का! पाण्डवों के पौरुष का तो बिल्कुल नहीं! क्योंकि उनके अन्दर- मुझसे ज्यादा कौन जानता था? -पाँचों के अन्दर कहीं न कहीं बैठा था शिखण्डी! या फिर वृहन्नला!! © Jagdish Savita : जगदीश सविता