एक पत्थर

काश हो जाता मैं वह पत्थर कि जिसके पैर नहीं होते हैं! जिसे ले जाती हैं ठोकरें यहाँ से वहाँ या कोई मनचला उछाल देता है किसी छलछलाती नदी में काश हो जाता मैं वह पत्थर! जिसे बहा ले जाती है नदी अपने साथ और छोड़ देती है किसी निर्जन किनारे पर जहाँ पर कोई शिल्पी नहीं आता उठाने मुझे मेरे नाक-मुँह-आँख बना कर मुझे नुमाइश के लिए रखने काश हो जाता मैं वह पत्थर! जो अपने भार-आयतन और अपने पत्थरपन के साथ बना रहता वैसा ही जैसा मैं हूँ कुछ और बनने की क़ोशिश से दूर अपने में निमग्न एक पत्थर। © Vivek Mishra : विवेक मिश्र