तुम्हारे शहर से जाने का मन है

तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है
महक थी अपनी साँसों में, परों में हौसला भी था
तुम्हारे शहर में आए तो हम कुछ ख़्वाब लाए थे
जमीं पर दूर तक बिखरे–जले पंखो! तुम्हीं बोलो
मिलाकर इत्र में भी मित्र कुछ तेज़ाब ले आए
बड़ा दिल रखते हैं लेकिन हक़ीक़त सिर्फ़ है इतनी
दिखाने के लिए ही बस ये हर रिश्ता निभाते हैं
कि जब तक काम कोई भी न हो इनको किसी से तो
न मिलने को बुलाते हैं, न मिलने ख़ुद ही आते हैं
बहुत नज़दीक जाकर देखने से जान पाए हम
कोई चेहरे नहीं हैं ये मुखौटे ही मुखौटे हैं
हमेशा ही बड़ी बातें तो करते रहते हैं हरदम
पर इनकी सोच के भी क़द इन्हीं के क़द से छोटे हैं
कभी लगता है सारे लोग बाज़ीगर नहीं तो क्या
मज़े की बात है हमको करामाती समझते हैं
हमेशा दूसरों के दिल से यूँ ही खेलने वाले
बड़ा सबसे जहाँ में ख़ुद को जज़्बाती समझते हैं
शिक़ायत हमसे करते हैं कि दुनिया की तरह हमको
समझदारी नहीं आती, वफ़ादारी नहीं आती
हमें कुछ भी नहीं आता, मगर इतना तो आता है
ज़माने की तरह हमको अदाकारी नहीं आती
न जाने शहर है कैसा, न जाने लोग हैं कैसे
किसी की चुप्पियों को भी ये कमज़ोरी समझते हैं
बहुत बचकर, बहुत बचकर, बहुत बचकर चलो तो भी
बिना मतलब, बिना मतलब, बिना मतलब उलझते हैं
शहर की इन फ़िजाओं में अजब-सी बात ये देखी
खुला परिवेश है फिर भी घुटन महसूस होती है
यहाँ अनचाहे-अनजाने से रिश्ते हैं बहुत लेकिन
हर इक रिश्ते की आहट में चुभन महसूस होती है
बहुत मज़बूर होकर हम अगर क़ोशिश करें तो भी
तुम्हारे शहर में औरों के जैसे हो नहीं सकते
बिछाता है कोई काँटे अगर राहों में तो भी हम
किसी की राह में काँटे कभी भी बो नहीं सकते
मिलेंगे अब कहाँ अपने, जगेंगे क्या नए सपने
बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें
चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में ख़ुद को
कहाँ ले जाएगी फिर ज़िन्दगी ये किसलिए सोचें
नए रस्ते, नए हमदम, नई मंज़िल, नई दुनिया
भले हों इम्तिहां कितने, कोई अब ग़म नहीं होंगे
सफ़र यूँ ज़िन्दगी का रोज़ कम होता रहे तो भी
सफ़र ज़िन्दादिली का उम्र भर अब कम नहीं होगा
यहाँ नफ़रत के दरिया हैं, यहाँ ज़हरीले बादल हैं
यहाँ हम प्यार की एक बूंद तक को भी तरसते हैं
यहाँ से दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर जाने दो
यहाँ हर कूचे में दीवानों पे पत्थर बरसते हैं
ऐ मेरे दोस्त! तुम मरहम लिए बैठे रहो लेकिन
ज़माना ज़ख़्म भरने की इज़ाज़त भी नहीं देगा
हमें फ़ितरत पता है इस शहर की, ये शरीफ़ों को
न जीने चैन से देगा, न मरने चैन से देगा
अगर अपना समझते हो तो मुझसे कुछ भी मत पूछो
समाया है अभी दिल में गहन सागर का सन्नाटा
किसी से कहना भी चाहें तो हम कुछ कह नहीं सकते
हमें ख़ामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा
किसी को फ़र्क क्या पड़ता है जो हम ख़ुद में तन्हा हैं
किसी दिन शाख़ से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ
किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे
मनाने कौन आएगा, अगर हम रूठ भी जाएँ
तुम्हारे शहर के ये लोग, तुम इनको बताना तो
भला औरों के क्या होंगे ये ख़ुद अपने नहीं हैं
मुसलसल पत्थरों में रह के पत्थर बन गए सब
किसी की आँख में भी प्यार के सपने नहीं हैं
मुझे मालूम है ऐ दोस्त! तुम ऐसे नहीं हो; पर
तुम्हारा दिल दुखाकर मैं भला ख़ुश कब रहूंगा
मगर अब सिर से ऊँचा उठ रहा है रोज़ पानी
मैं अपने दिल पे पत्थर रखके बस तुमसे कहूंगा-
तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी