ज़माने ने कभी ऐसा कोई मंज़र नहीं देखा
हमारे हाथ में उठता हुआ पत्थर नहीं देखा
मुझे बिजली के गिरने पर फ़क़त इतनी शिक़ायत है
कि इक मासूम का टूटा हुआ छप्पर नहीं देखा
वही मंज़िल पे पहुँचे हैं हमेशा वक़्त से पहले
जिन्होंने पाँव में चुभता हुआ पत्थर नहीं देखा
निभाई दोस्ती मुंसिफ़ ने क़ातिल को रिहा करके
हमारी पीठ में उतरा हुआ ख़ंजर नहीं देखा
जिन्होंने पेड़ नेकी के लगाए इस ज़माने में
उन्होंने ख़ुद किसी भी मोड़ पर पतझर नहीं देखा
सुनो क्या गुज़री उस बाबुल पे बेटी की विदाई पर
कि जिसने जाती डोली की तरफ़ मुड़कर नहीं देखा
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल