सुनो तथागत!

सुनो तथागत!
राजमहल से मैं तुमको लेने आया हूँ,
मैं सिद्धार्थ मुझे पहचानो,
लाओ! मुझको वल्कल दे दो।

अरे! राजसी चिह्न कहाँ हैं?
मेरे केश कहाँ पर काटे,
वे राजा के आभूषण सब,
बोलो किसको किसको बाँटे?,

नित्य मृत्यु से बातें करती
कहती आकर ले जा मुझको,
राहुल के प्रश्नों में उलझी
यशोधरा ने भेजा मुझको।

अहो ! तुम्हारी दशा देखकर
मैं मन ही मन घबराया हूँ,
फिर भी यदि संभव हो पाये
तो उन प्रश्नों के हल दे दो।

मेरी छोटी सी यात्रा है
तुम विराट पथ के हो गामी,
मुझे मृत्यु देकर आये तुम
कैसे जरा मरण के स्वामी ?

मैं नतमस्तक हूं चरणों पर
बस मेरा इतना हित कर दो,
मेरी अभिलाषा हो पूरी
मुझको फिर से जीवित कर दो,

मैंने माना अजर अमर तुम
मैं पीडि़त जर्जर काया हूँ
लेकिन मौन न धारो ऐसे
वचनों से ही संबल दे दो।

उस निर्जन प्रांतर में फिर फिर
सारे प्रश्न देर तक बोले
सम्मुख था सिद्धार्थ बुद्ध ने
फिर भी अब तक नयन न खोले,

गहन मौन बहता था तन से
उसमें सारे प्रश्न घुल गये
दूर घने जंगल में आकर
राजमहल के नयन खुल गये,

लज्जित सा सिद्धार्थ कह रहा
मैं कुछ पत्र पुष्प लाया हूँ
मुझे न, लेकिन इन फूलों को
चरणों में अपने स्थल दे दो।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल