मन का मौसम

इस बार गर्मी ने
रिकॉर्ड तोड़ा है
शहर में!

सूरज,
तपती आग का
एक गोला-सा
जैसे निगल ही जाएगा
धरती को….
धरती दिन-रात
जल रही है
तवे की तरह।

लेकिन
न जाने क्यों
नहीं बदला है मौसम
मन के
भीतर का
नहीं पिघल रही है
मन पर जमी बर्फ़
शायद उसे चाहिए
कुछ और तपिश

…गर्मी नहीं
सम्बन्धों की ऊष्मा ही
पिघला सकती है
ये बर्फ़
तभी शायद
मन का मौसम बदलेगा
और जमा है
जो बर्फ़-सा
वो अकेलापन
पिघलेगा।

© संध्या गर्ग