वो दीपक मेरा अपना हो

नभ तक पसरे अंधकार में
अंधियारे के भय से आगे
आँखों में बस एक स्वप्न है
इस अभेद्य दुर्दांत तिमिर में
जिसकी किरण उजाला भर दे
वो दीपक मेरा अपना हो

निविड़ निशा का सन्नाटा हो
स्यालों के मातमी स्वरों से
अंतर्मन बैठा जाता हो
देह चीरती शीतलहर में
झींगुर का स्वर दहलाता हो
भयाक्रांत अस्तित्व सहमकर
सरीसृपों के आभासों से
सधा-बचा बढ़ता जाता हो
ऐसी कालरात्रि से बचकर
शुभ-मुहूर्त का इंगित पाकर
जो जग के जीवन को स्वर दे
वो कलरव मेरा अपना हो

भाग्य रेख जब कटी फटी हो
गृह-नक्षत्र विरुद्ध खड़े हों
कालसर्प हो, पितृदोष हो
सब कुयोग-अभिशाप दृष्ट हों
कर्म और फल की चिंता तज
विधिना के लेखे विस्मृत कर
मेरे हित सब नियम तोड़ कर
जो धरती को अम्बर कर दे
वो ईश्वर मेरा अपना हो

© Chirag Jain : चिराग़ जैन