क़ब्रगाह

साहब को मिला था
नया बंग्ला
मिली थी विदेश मंत्रालय में
सचिव की कुर्सी
उन्हें हमेशा से पसंद थे
विदेशी वस्तुएँ
साफ़
सफ़ेद
चमकदार।
पसंद थे विदेशी दोस्त
विदेशी तोहफ़े!
तोहफ़े में ही आई थीं
सफ़ेद ग़ुलाब की विदेशी क़लमें
जो रोप दी गई थीं
लॉन की एक क्यारी में
जहाँ सजती थी शाम
महकते थे देशी क्यारियों में
विदेशी फूल
तभी एक दिन
बूढ़े माली ने कहा था
जवान भिश्ती के कान में-
”पहले यहाँ क़ब्रगाह थी
यहाँ दफ़्न हैं
आज़ादी के कई परवाने”
भिश्ती ने माली की बात
अनसुनी कर दी थी
पर एक शाम
उसने देखा
कि विदेशी नस्ल के
सफ़ेद ग़ुलाब के पौधे
जब पनपे बंग्ले की उस क्यारी में
तो उनके फूलों का रंग …लाल था!
बूढ़ा माली फिर बुदबुदाता रहा था-
”विदेशी ग़ुलाब की जड़ों ने
मिट्टी में जाकर
मुँह खोल ही दिया
तोहफ़ों के आड़ में हुए
दस्तावेज़ों के सौदे का राज़
बोल ही दिया।
अब उन्हें कैसे नींद आएगी
इस क़ब्रगाह में!
अब किसे नींद आएगी
इस क़ब्रगाह में!”
सचमुच
फिर उस बंग्ले में
कोई सो न सका
न साहब
न मेमसाहब
न बिटिया रानी
और कुत्ता तो
रात भर रोता था
बूढ़ा माली सच कहता था
सचमुच ही
पहले वहाँ क़ब्रगाह थी।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र