वेदना

वह सालों-साल
रात के तीसरे पहर तक
उनींदी पलकें
पीले बल्ब पर सेंकता होगा
दफ़्तर के दमघोंट कमरे में
फ़ाइलों के भँवर में
डूबने से पहले
सिर उतार कर रख देता होगा
…अक्षरों की गोद में
सालों-साल
पीली पर्चियों पर
लिख कर दो अक्षर
सूंघता होगा कविता को
संजीवनी-सा।
कैसे बचाता होगा
ख़ुद में उसे
या उस में ख़ुद को
विचरता होगा दिन-रात
काग़ज़ पर डूबती-उतराती
स्याह पगडण्डियों पर
गुज़रती होंगी
कानों को छूती
धड़धड़ाती गाड़ियाँ
भा भा, षा षा, व्या व्या,
क क, र र, ण ण
का शोर करतीं,
कविता का व्याकरण पूछतीं
तब उपजी होगी
एक कविता
जो लिली जैसी नहीं थी
न ही थी नागफ़नी-सी
तुम कैसे कर पाओगे
उसका नामकरण
उसे एक बार पढ़ कर
या एक बार सुन कर
उन्हीं कविताओं में
कहीं बैठा होगा वह भी
अपना घर बनाए
बिना अपने नाम की
तख्ती लगाए
तुम कैसे दे पाओगे
दस्तक
उसके दरवाज़े पर
बस अख़बार की तरह
उसे एक बार पढ़ कर
या किसी समाचार-सा
एक बार सुनकर
… बस एक बार सुन कर।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र