मैं सिंहासन हूँ

मेरे पास न आओ, मैं सिंहासन हूँ, सुख-समृद्धि के नाम युद्ध का ज्ञापन हूँ; सकल-सृष्टि के आकर्षण का मंत्र हूँ, सम्मोहन हूँ, वशीकरण-उच्चाटन हूँ; सत्ताधीशों की सांसों का सहचर हूँ, भीतर वैसा नहीं कि जैसा बाहर हूँ; मुझे रिझाने, बीन बजाते बाजीगर, शान्ति-पिटारी में अशान्ति का विषधर हूँ; कोई मेरे मस्तक मुकुट सजाता है, कोई मेरे हाथों ध्वज फहराता है; राजनीति है मेरी जीवन-संगिनी, वैभव से मेरा भाई का नाता है; मैं बूढ़े दशरथ को ज्ञान सिखा आया, नाम ‘राम‘ का ‘राजा-राम‘ लिखा आया; मुझे मिला सौभाग्य भरत की संगति का, वैसा शासक-संत न अब तक मिल पाया; मैंने किया सुयोधन को था ‘दुर्योधन‘, काम न आया दशरथ का उद्बोधन; मेरे कारण ‘दुःशासन‘ निर्लज्ज बना, हुए महाभारत को उद्यत ‘मनमोहन‘; नंद-वंश के साथ बहुत दिन खेला मैं, विक्रम का मंत्री तक रहा अकेला मैं; इनसे पहले मुझे तथागत ने तजा, देख चुका संहार, सृजन की वेला मैं; अगणित बार लुटेरों का दल आया था, लिए पराजय की कालिख लौटाया था; शब्द-बेध का मैं ही उपसंहार हूँ, मैंने ही जयचंदी-रास रचाया था; गोरी, बाबर, अकबर से मैं था मिला, रहा ‘जफर‘ तक यही बराबर सिलसिला; मेरा ‘कोहेनूर‘, ‘कम्पनी‘ ले गई, मैं नन्दन में उपजा, लन्दन में खिला; बहुत दूर से देखा वीर सुभाष को, काट रहा था पराधीनता-पाश को; अब तक उसकी विरचित-कथा अधूरी है, उलट दिया जिसने पूरे इतिहास को; वर्तमान से मुझे शिकायत भारी है, कह सकता कुछ नहीं, बड़ी लाचारी है; घेर लिया है मुझको दोनों ओर से, आगे ‘सेवक‘ है, पीछे ‘अधिकारी‘ है; मुझे बुन दिया है विधान की जाली में, चरणामृत भर दिया, सुरा की प्याली में; सिन्धु पार से जिस दिन मैं दिल्ली लौटा, दिग्विजयी बैठा था नोआखाली में; उसने मेरा सदुपयोग बतलाया था, जो कहता था, कर के उसे दिखाया था; उसे धर्म का ज्ञान, कर्म का बोध था, इसीलिए तो कर्मवीर कहलाया था; अब ‘जन-नायक‘ का सम्बोधन कौन ले ? अट्टहास के बदले, रोदन कौन ले; हलधर भूखा है खेतों की मेड़ पर, “जनपथ“ या “अशोक“ में भोजन कौन ले ? बन्धु ! सुनो मेरे अन्तिम अनुरोध को- अधिक बढ़ावा मत दो गति-अवरोध को, मेरी पिछली भूलों को दुहराओ मत, शत्रु न अपना समझो स्वस्थ विरोध को; ‘सन्त विनोबा‘ मुझे मिटाना चाहते, क्या जाने किस लोक पठाना चाहते ? नया रंग भर, लेकर जर्जर-तूलिका, मेरे अगणित चित्र बनाना चाहते; नहीं दान से दशा देश की सुधरेगी, मावस में किस तरह चाँदनी निखरेगी ? मेहनत का मूल्यांकन होगा एक दिन, पूँजी की प्राचीर ध्वस्त हो बिखरेगी; सर्वोदय तो सीमाओं से दूर है, व्यापकता के लिए बड़ा मशहूर है; देना है तो उसको जीवन-दान को, जो मरने के लिए आज मजबूर है; काम न चलता नेताओं के नाम से, समता कैसे हो दलगत परिणाम से ? बेकारी, भुखमरी, बाढ़ का कोप है, महँगाई बढ़ रही बड़े आराम से; भूल गए तुम हर-हर, वन्दे मातरम, स्वतंत्रता का मन्दिर, वन्दे मातरम; त्रिशंकोटि कर लेकर अपने हाथ में, निकल पड़े थे कह कर-वन्दे मातरम; जन-गण-मन में समाधिस्थ भू-डोल हैं, अपनी झोली में मोती अनमोल हैं; दयानन्द, अरविन्द, विवेकानन्द से, ठाकुर हैं, नज़रूल हैं, वल्लातोल हैं; ‘नादिम‘ जैसे कश्मीरी कचनार हैं, ‘वीर सिंह‘ से गीतों के सरदार हैं; ‘सावरकर‘ को थाह सिंधु की ज्ञात है, ये सब अपनी ही वीणा के तार हैं; ‘सातवलेकर‘ से वेदों का नाद लो, ‘अमृतपाद‘ से संस्कृत के अनुवाद लो; ‘चौबेजी‘ से सीखो सम्पादन-कला, ‘पुरूषोत्तम‘ से अपना गांधीवाद लो; कलाकार से तुम नाहक नाराज़ हो, यद्यपि उसकी वाणी के मुहताज हो; उसकी कृति से झंकृत यह सद्भावना, ‘जैसे भी हा,े मंगलकारी राज हो‘; कला मनुजता में देवत्व जगाती है, पशुता को मानवता तक पहुँचाती है; कण-कण में भरती संवेदनशीलता, जीवन को जीने के योग्य बनाती है; सुकवि ‘निराला‘ अलग गली में घूमता, सरस्वती का पुत्र न चाँदी चूमता; उसका अनहद नाद नहीं सुन पाए तुम, जिसका स्वर सुन तरू-तरू, द्रुम-दु्रम झूमता; उसके ‘तुलसी‘ का घर-घर सत्कार है, ‘राम शक्ति पूजा‘ का सुयश अपार है; उसे न देखो तुम संकीर्ण-निगाह से, वह उदारता से भी अधिक उदार है; सब से निर्देशन की नेक सलाह लो, मंजिल तक पहुँचाने वाली राह लो; ‘प्रेमचन्द‘ के सपने भी साकार हों; ‘शरतचन्द्र‘ की किरणों से उत्साह लो; सब को भोजन, वसन और आवास दो, नैतिकता को तुम अपना विश्वास दो; पंख उगे हैं अभी अमन के पंछी के, उसके उड़ने को असीम आकाश दो; हिम्मत है तो मुझ में ठोकर मार दो, प्रासादों से नीचे मुझे उतार दो; सफल बनाने निर्माणों की योजना, नए-खून को अवसर दो, अधिकार दो; गीता-गायक जैसा सारथि चाहिए, ‘इति‘ कला तक हो गई, आज ‘अथ‘ चाहिए; विधिवत् विधि का रिक्त कमंडलु हो गया, ‘गंगा‘ तो आ गई, ‘भगीरथ‘ चाहिए; क्रान्ति-अनल में जलने को तैयार हूँ, तिल-तिल जल कर, गलने को तैयार हूँँ; ऊब गया हूँ, प्रभुताओं के बोझ से, जैसे ढालों, ढलने का तैयार हूँ ! © Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’