पहचान

एक दिन सुना था मैंने तुम्हारा स्वर
उसमें रस था
लय थी
और था चुम्बक का-सा आकर्षण
मैंने फिर सुनना चाहा
पर नहीं सुन सका
उसमें असंख्य स्वर मिल गए थे
मैं नहीं पहचान सका
वह गीत बन गया था
एक दिन तुमने एक रेखा खींची थी
सुन्दर, स्पष्ट और सरल
पर थी बहुत सूक्ष्म
एक दिन मैं ढूंढ रहा था
तुम्हारी पहली रेखा को
पर उसे नहीं पहचान सका
वह चित्र बन गया था।

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ