मुझे मेरे ही भीतर से उठाकर ले गया कोई

मुझे मेरे ही भीतर से उठाकर ले गया कोई
मैं सोया था कहीं बेसुध जगाकर ले गया कोई

मैं रहना चाहता था जिस्म की इस क़ैद में लेकिन
मुझे ख़ुद क़ैद से मेरी छुड़ाकर ले गया कोई

गए हैं दूर वो जबसे भटकता हूँ अंधेरों में
नज़र से नूर को मेरे चुराकर ले गया कोई

भरी महफ़िल समझती थी मैं उसके साथ हूँ लेकिन
मुझे नज़रों ही नज़रों में छुपाकर ले गया कोई

नदी-सा बेख़बर अपनी ही कलकल में मगन था मैं
समुन्दर की तरफ़ मुझको बहाकर ले गया कोई

मैं जैसा भी हूँ, वैसा अपने शेरों में धड़कता हूँ
मुझे ग़ज़लों में मेरी गुनगुनाकर ले गया कोई

भटकता फिर रहा था बिन पते के ख़त सरीखा मैं
मेरा असली पता मुझको बताकर ले गया कोई

© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल