पाञ्चजन्य

भुरभुरे आवरण को
लिजलिजाते बरसाती कीड़े
समझते हैं दुर्भेद्य कवच!
इन्हीं अनोखे खिलौनों से
खेलते हैं नटखट बालक
बहुधा करते हैं छेड़छाड़
और फेंक देते हैं कहीं के कहीं
हज़ारों तो बूट तले दब-पिस जाया करते हैं

अचरज की बात
वासुदेव का पाञ्चजन्य
जिसके उद्धोष से
आतताइयों के अन्तर दहल जाते थे
-इसी परिवार
इन्हीं घोंघों का पूर्वज रहा था कभी!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता