पता नहीं है

जाने कितनी बार टूटकर बिखरे हैं हम पता नहीं है जाने कितनी बार बिखरकर सँवरे हैं हम पता नहीं है जीवन की छोटी-सी बाज़ी कितनी बार जीतकर हारे आशाएँ इतनी दूरी पर जितने चंदा, सूरज, तारे दूरी का अनुमान लगाकर रात-रात भर जाग रहे हम बिना पते के पथिक सरीखे जीवन-पथ पर भाग रहे हम जाने कितनी बार दौड़कर ठहरे हैं हम पता नहीं है इतना सूखा पड़ा धारा पर सूख गया आँखों का भी जल जीवन ऐसे सूना-सूना जैसे तपता हुआ मरुस्थल गर्म रेत में मृगछौने-सा बार-बार ही भटक रहा मन मतलब की ख़ातिर ही ये तो रूप बदलता रहता हर क्षण अन्दर क्या हैं, बाहर किसके चेहरे हैं हम पता नहीं है धर्मों की पोथी पढ़कर भी मानव सुधरा नहीं ज़रा-सा कुछ साज़िश चल रही बराबर फिर से छाने लगा कुहासा सूरज से ग़द्दारी करके मौसम ने फिर जाल बुना है कोलाहल के बीच हमारे कानों ने कुछ नहीं सुना है अंधे हैं, गूंगे हैं या फिर बहरे हैं हम पता नहीं है © Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल