पथिक!

पथिक! तुम्हारे पथ में कोई
दृश्य अनूठा आया होगा
धूली के कण-कण ने रह-रह
गीत अनूठा गाया होगा

कान तुम्हारे पास नहीं थे
पंछी गण की कलकल ध्वनि ने
उन्हें चुराया उन्हें लुभाया
सुख संवाद सुनाया होगा

ललित लताओं की कलियों में
बंदी थी वे चल ताराएँ
दीन-हीन जगती का हामी
सपने में तरसाया होगा

पैर तुम्हारे दुरभिमान से
रोंद रहे थे दीन कणों को
हो रहा था भू में कंपन
जगती को ठुकराया होगा

कोमल पावन हाथ तुम्हारे
कैसे उन नीचों को छूते
पाद तलों से घिसते-घिसते
जिसने जीवन पाया होगा

स्पंदन हीन दृश्य में शोणित
संचालन का वेग कहाँ था
मानवता-दानवता के विच
इतना अंतर पाया होगा

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ