प्रतिध्वनि

कभी तुमने स्वयम् कहा नहीं कुछ भी…. क्या यह सच नहीं? जो कुछ भी मैंने सुना तुमसे वो मेरे ही कहे की प्रतिध्वनि मात्र थी मैं थी जब शान्त तब सामने से भी उत्तर शान्त ही मिला था और कभी दुख पीड़ा या असन्तोष व्यक्त हुआ मुझसे तो, तुमसे भी एक ठण्डी आह सुनाई दी है मुझे और कभी क्रोध से तिलमिलाकर अचानक कहा मैंने जब कुछ तो उसकी प्रतिध्वनि द्विगुणित होकर आई है, तुममें से विस्फोट के समान। आज जब चुप हूँ मैं कुछ भी नहीं कहती तो एक निश्वास ही सुनाई देता है… सामने से भी। काश कभी ऐसा होता! कहते तुम कुछ स्वयम् भी…. © Sandhya Garg : संध्या गर्ग