रिश्तों के जंगल

हमें रिश्तों के जंगल में भला क्योंकर भटकने का
जो सुख-दुख में रहे शामिल उसे अपना समझने का

किसी की बात सुनने का, न अपनी बात कहने का
मगर अपनी कसौटी पर खरा होकर उतरने का

हकीक़त जिंदगी की वो भला समझे तो क्या समझे
जिसे मौका नहीं मिलता कभी घर से निकलने का

कोई धीरे से आकर आईना दिखला गया मुझको
अगर चेहरों के जंगल से कभी चाहा गुजरने का

कोई ताकत नहीं जो रोक ले रफ्तार फिर अपनी
अगर हम ठान लें कुछ ज़िंदगी में कर गुजरने का

कभी घुट-घुट के जीते हैं, कभी तिल-तिल के मरते हैं
सलीका ही नहीं आता हमें जीने का मरने का

चलेगी सांस जबतक इस ज़मीं पे दोस्तो, अपनी
रहेगा सिलसिला यूं ही सिमटने और बिखरने का

दरख्तों पे, चटानों पे, बिछी है बर्फ की चादर
यही मौसम तो होता है पहाड़ों के निखरने का

© Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम