कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं

कब से कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं।

कोई नहीं मिला मुझको यूँ जब तक भटके मारे-मारे
मोती लगे छूटने जब से इस जीवन की झील किनारे
बदल गये हैं दृश्य अचानक बदल गया है हाल…
काग हंस की खाल ओढ़कर बैठे हैं।

गाता फिरता गली-गली मैं टूटन-उलझन-पीर तुम्हारी
सम्मोहन के आगे झुकते भवन, कँगूरे, महल, अटारी
दुनिया ने जो किये समर्पित सम्मानों के शाल…
सपनों के कंकाल ओढ़कर बैठे हैं।

आगे-पीछे नाच रही है बनकर हर उपलब्धि उजाला
जाने कितने भ्रम पाले है मेरा एक चाहने वाला
मैंने उसे बहुत समझाया, कहा कि भ्रम मत पाल…
फँसे नहीं हैं जाल ओढ़कर बैठे हैं।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल