सुनो तथागत! -2

‘सुनो तथागत’ कौन कह गया? शून्य विजन में । सहसा चौंका,सहज तपस्वी जागा जैसे चिर समाधि से धीरे धीरे लोचन खोले सम्मुख देख रहा था ध्यानी, चकित हृदय, जागा कौतूहल कोई कहीं नहीं था वन में किन्तु कहाँ से आई यह ध्वनि सुनी सुनी जानी पहचानी, एकाएक फिर लगा झाँकने अपने मन में I मन के भीतर इक कोने में सूना सूना राजमहल था जिसकी चौखट पर दो अपलक यशोधरा के नयन रखे थे, और पास ही स्वागत वाला स्वर्ण जटित वह थाल धरा था जिसमे अक्षत रोली चंदन कब के सूखे सुमन रखे थे। तभी अचानक दृश्य हुआ वह ओझल क्षण में,। पल पल घटता,छँटता था तम छन छन कर आ रही चाँदनी यशोधरा की केशराशि से जैसे जैसे बेला झांक रहे हों, दृष्टि फेर कर ,जड़वत् बैठा रहा तपस्वी सघन विपिन में ओस भिगो कर गयी धरा,यों ज्यों साधक के नयन बहे हों। क्षुद्र विरह का अर्थ नहीं कुछ महामिलन में। © Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल