सूर्य चलकर आ गया है देहरी तक

सूर्य चलकर आ गया है देहरी तक द्वार की साँकल इसी पल फँस गई है भाग्य सब वैभव लुटाने को खड़ा है क्यों मेरी मुट्ठी इसी पल कस गई है रंग-भू पर जब हुआ अपमान; तब ये आस रक्खी एक दिन रण में तेरा गाण्डीव भी दो टूक होगा शर बताएंगे कभी जब गोत्र मेरी वीरता का राजसी वैभव का हर जयघोष उस क्षण मूक होगा जब समर में सामने है पार्थ मेरे क्यों उसी पल भूमि ऐसे धँस गई है क्या करे जीवट अगर हर आस दामन छोड़ जाए लड़खड़ाते घुंघरुओं का ताल से संबंध क्या है ताश के घर से कई सपने संजोए पुतलियों में धैर्य के क्षण का भला भूचाल से संबंध क्या है ईश जाने कौन-सी दुर्भाग्य रेखा मेरी जीवन रेख के संग बस गई है © Chirag Jain : चिराग़ जैन