स्वयं से दूर

मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ व्यर्थ ही दुःख के पलों की डोर में अश्रु के मोती पिरोता जा रहा हूँ मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ सोचता हूँ पुष्प जैसे सौम्य जग में शूल चुभते पीर के दिन-रात पग में ज़िंदगी संगम है बस दो-चार क्षण का ये महज़ त्यौहार है जीवन-मरण का व्यर्थ ही व्याकुल मैं इन नैनों के घट में अश्रुजल का भार ढोता जा रहा हूँ मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ वक़्त की इन साज़िशों का और छल का कौन कर पाया भला प्रतिरोध कल का फिर जगत की वेदना पाता नहीं है जो गया वो लौट कर आता नहीं है व्यर्थ ही मैं पथ प्रतीक्षा कर रहा हूँ व्यर्थ ख़्वाबों को सँजोता जा रहा हूँ मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ © Nikunj Sharma : निकुंज शर्मा