स्वीकार

तुमने कहा- “मैं हूँ ना! …साथ रहेंगे अन्त तक” फिर तुम्हीं ने कहा- “नहीं हूँ मैं कहीं! …छोड़ दो मुझे! खो चुकी है विश्वास की पूंजी” दोनों ही स्थितियों में नहीं कह पाई कुछ भी मैं! क्योंकि स्वीकार करना होता है सब कुछ वहाँ, जहाँ होता है पूर्ण समर्पण © Sandhya Garg : संध्या गर्ग