तब और अब

मौत के नाम से सिहर उठती थी वो छोटी-सी बच्ची प्रकृति के इस वैभत्स्य पर! अक्सर पूछ लेती थी ठिठककर- ”लोग मरते ही क्यों हैं?” हुई जब कुछ बड़ी तो ज़िन्दगी की बेतहाशा अनसुलझी समस्याओं से हार कर इच्छा पनपी उसके मन में मृत्यु के आलिंगन की! तब वो भूल गई थी कि मरने से लगता था उसे डर कभी और एक स्थिति यह भी है कि अब वो रोज़ाना मर जाती है एक नई मौत ….और उसे पता भी नहीं चलता। © Sandhya Garg : संध्या गर्ग