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अनर्गल

अनर्गल बताकर मेरे प्रश्नों को
अक्सर कह देते हैं लोग
कि महज पागलपन हैं
मेरे ये प्रश्न।

क्योंकि अक्सर सोचती हूँ मैं
कि कैसा लगता होगा रोटी को
जब कोई
चबा जाता होगा उसे
आड़ा-तिरछा तोड़कर

कैसे छटपटाती होगी
सफेद साँचे में ढली सिगरेट
जब उड़ा देता होगा कोई
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को
धुएँ के साथ
और फिर होठों से हटा
पैरों तले कुचलकर
बढ़ जाता होगा आगे

….हम्मम!
शायद
पागल ही हो गई हूँ मैं।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मरणधर्मा सम्बन्ध

सम्बन्धों की ऊष्मा लिए
मन को मन से जोड़े
चले थे हम जिस यात्रा पर
नहीं हो पाई है
वह अभी पूरी

सम्भवत:
लक्ष्य ही नहीं
निर्धारित हो पाया सही
या फिर चलने लगे थे
विपरीत दिशा में
हम ही

हमें तो जाना था
मन से आत्मा की ओर
लेकिन लौटे हम देह पर
और देह का तो एक ही धर्म है,
कि वह मरणधर्मा है।

तो उस पर आधारित सम्बन्ध
रह भी कैसे सकता था जीवित
सदा के लिए?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग